kabirthapar
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| Subject: Latest Breaking News in Hindi Online 7/26/2017, 00:33 | |
| इस जहरीली खेती के बाद यूरोपीय बाजारों नें हमारे हाथ में जैविक खेती का एक नया झुनझुना थमा दिया है। जैविक प्रमाणित वस्तुओं का बाजार मूल्य सामान्य वस्तुओं की तुलना में काफी अधिक होता है, लेकिन इसका लाभ किसान को नहीं मिलता। इसके फायदे का मोटा हिस्सा जैविक की मार्केटिंग करवाने वाली संस्थाएं और बिचौलिये ले जाते हैं। प्रमाणीकरण के सारे मापदंड यूरोप और अमेरिका में बने हुए या फिर उनके अनुसार बनाए गए हैं। इसके पीछे का तर्क यह दिया जाता है कि यदि जैविक उत्पाद का निर्यात करना है तो वहां के मापदंडों को स्वीकार करना ही होगा और यदि निर्यात की संभावना को छोड़ दें तो किसानों को जैविक खेती का कोई फायदा नहीं मिल पाएगा।
कृषि विद्वान और गांधीवादी सुभाष पालेकर कहते हैं, ‘जैविक खेती की बातें केवल दिखावे की हैं। यह खेती का व्यवसायीकरण करने का एक षडयंत्र मात्र है। किसानों को जितना खतरा वैश्वीकरण से है, उतना ही जैविक खेती रूपी व्यवसायीकरण से भी है।’ गौर करें तो यह सारा मामला मार्केटिंग और पैसे से जुड़ा दिखता है। इसमें कहीं भी भूमि और किसानों व उपभोक्ताओं के हितों के संरक्षण की बात नहीं है। कुछ दिनों पहले दिल्ली में आयोजित इंडिया ओरगैनिक ट्रेड फेयर में ये सच्चाई भी खुलकर सामने आई कि जैविक प्रमाणित वस्तुओं का मूल्य किसान द्वारा बेचे गए मूल्य से बहुत ज्यादा होता है पर इसमें किसान का हिस्सा कहां है कुछ पता नहीं?
किसी भी स्टाल पर किसानों के इस सवाल का जवाब नहीं था कि उन्हें जैविक खेती करने से क्या लाभ है? एक नामी प्रमाणीकरण संस्था के जांचकर्ता ने स्वीकार किया कि जैविक खेती के विदेशों में स्वीकृत मापदंड भारत की परिस्थितियों के अनुकूल नहीं हैं, इसलिए भारत का गरीब किसान अपनी खेती को जैविक प्रमाणित नहीं कर सकता। लगता है एक बार फिर खेती और किसान की भावनाएं दोनों ही बेची जा रही है। ____________________ भारतीय किसान | ताजा खबरें | हमारा देश भारत | राजनीति | |
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